नाम- शिवाजी राजे भोसले
जन्म- 19 फ़रवरी 1630
जन्म स्थान- शिवनेरी दुर्ग, जुन्नार नगर (पुणे के उत्तर में)
मृत्यु- 3 अप्रैल 1680
मृत्यु स्थान- रायगढ़ फोर्ट
पिता का नाम- शाहजी भोंसले
माता का नाम- जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ)
जीवन साथी-  सइबाई निम्बालकर (विवाह 14 मई 1640, लाल महल, पुना)
धर्म- हिन्दू
परिवार के बारे में सक्षिप्त जानकारी    
शिवाजी के पिता शाहजी अप्रतिम शूरवीर और बीजापुर के एक शक्तिशाली राजा थे. ये भोंसले उपजाति के थे, जो मूलत: कुर्मी जाति से संबद्धित है. कुर्मी जाति कृषि संबंद्धित कार्य करती है. उनकी माता जीजाबाई (जिजाऊ) जाधव कुल में जन्मी प्रतिभाशाली महिला थी. शिवाजी महाराज के चरित्र और उनके भविष्य पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा. उनका बचपन उनकी माता जिजाबाई की देखरेख में बीता. वह सभी कलाओं मे माहिर थी जैसे अस्त्र-शस्त्र विधा। वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लग गये थे. शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते और बेचैन हो जाते थे. उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो चुकी थी. उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठित किया. अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने का उनका संकल्प और प्रबल होता गया.
शिक्षा
शिवाजी  को हैदरअली और रणजीत सिंह की तरह नियमित शिक्षा नहीं मिली थी. उनकी माँ पैत्रिक जागीरदारी में ही रहती थीं. शाहजी भोंसले ने अपने विश्वासी सेवक दादाजी कोणदेव को शिवाजी का संरक्षक नियुक्त किया था. दादाजी कोणदेव एक वृद्ध अनुभवी विद्वान् थे. उन्होंने शिवाजी की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें मौखिक रूप से रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक ग्रन्थों से अवगत करवा दिया था. मानसिक विकास के साथ-साथ दादाजी कोणदेव ने शिवाजी को युद्ध-कला की शिक्षा भी दी थी. दादाजी कोणदेव से ही शिवाजी को प्रशासन का ज्ञान प्राप्त हुआ था. अतः जीजाबाई के अतिरिक्त दादाजी कोणदेव का प्रभाव शिवाजी के जीवन और चरित्र-निर्माण पर सबसे अधिक पड़ा था.
चरित्र-विकास
शिवाजी के चरित्र-विकास में गुरु रामदास जी की शिक्षा का भी प्रभाव था. रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक थे. रामदास जी ने मराठों को संगठित करने और जननी एवं जन्मभूमि की रक्षा करने का सन्देश दिया था. उन्होंने धर्म, गाय और ब्राह्मण की रक्षा करने का आदेश दिया था. माँ, संरक्षक और गुरु के आदर्शों से प्रेरणा पाकर शिवाजी धीरे-धीरे साहसी और निर्भीक योद्धा बन गए. वे धर्म, धरती और गाय की रक्षा के नाम पर एक राष्ट्र का निर्माण करने का स्वप्न देखने लगे. विदेशी सत्ता से मातृभूमि को मुक्त करने का संकल्प ले चुके थे. मात्र लूट-पाट की चाह के स्थान पर शिवाजी ने विदेशियों के अत्याचार से देश को स्वतंत्र करने के उद्देश्य से अपना जीवन जिया था.
शिवाजी का राज्याभिषेक रायगढ़ 1774
पश्चिमी महारष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राह्मणों ने उनका घोर विरोध किया. शिवाजी के निजी सचीव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नामक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, किन्तु गंगाभ ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे. उसने कहा कि क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा. बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया. किन्तु यहाँ आने के बाद जब उसने पुन जाँच पड़ताल की तो उसने प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक से मना कर दिया. अंतत: मजबूर होकर उसे एक लाख रुपये के प्रलोभन दिया गया तब उसने 6 जून, 1674 को राज्याभिषेक किया.राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राहमणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया. विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना करनी पड़ी. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया. शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की. काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था. पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया. इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ. दो बार हुए इस समारोह में लघभग 50 लाख रुपये खर्च हुए. इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था. विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था. एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया.
विवाह
शिवाजी का विवाह 1641 ई. में सईबाई निम्बलकर के साथ बंगलौर में हुआ था. उनके संरक्षक दादा कोणदेव अनिश्चित जीवन व्यतीत करने के बदले परम्परागत ढंग की सेवा करने के पक्ष में थे. परन्तु शिवाजी की स्वतंत्र प्रकृति को सेवावृत्ति नहीं भाई. उन्होंने 16 वर्ष की आयु से ही कोंकण के आस-पास लूट-पाट प्रारम्भ कर दिया था. इन घटनाओं की सूचना पाकर दादाजी कोणदेव बहुत व्यथित हुए और मार्च, 1647 ई. में उनकी  मृत्यु हो गई. संरक्षक की मृत्यु के बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रूप से अपनी मंजिल तय करने का निर्णय लिया.
मृत्यु
1680 ई. में क्षत्रपति शिवाजी की मृत्यु हो गयी. वे अपने पीछे ऐसा साम्राज्य छोड़ गए जिसका मुगलों से संघर्ष जारी रह गया. उनकी मृत्यु के तुरंत बाद, 1681 में, औरंगजेब ने मराठों, आदिल शाही और गोलकुंडा के प्रदेशों पर कब्जा करने के लिए दक्षिण में आक्रामक सैन्य अभियान चलाया.